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Friday, April 23, 2021

स्वेटर

खुद को पिरो दिया तुझमे इतना

की हर धागे के खीचने से सिसकी निकलती है 

जी करता है एक बार मे उधेड़ दूँ ये पूरा स्वेटर

वापस एक ऊन का बेमतलब का गोला बना दूँ

जो अधूरा सही मगर संभाल के रखा जाता हो 

मगर उंगलियां मानो अकड़ जाती हों 

इस खयाल भर से...

शायद तुझे और रंगों की चाहत है 

मिलके उनमें, और फबेगा तू 

नया डिज़ाइन नया नमूना 

पल में बिखर के फिर नया बनेगा तू 

तो क्या करूँ 

खुद के धागे खींच के निकाल दूँ?

या रहने दूँ, यूँही थोड़ा पुराना थोड़ा अपना सा

धो सूखा के करीने से संदूक में सहेज लूँ 

की अगले बरस फिर सर्दियों में 

तेरी याद आएगी

Tuesday, May 5, 2020

मैं तेनु फ़िर मिलांगी


मैं तेनु फ़िर मिलांगी
कभी एक सवाल के जवाब में उभरांगी
कभी एक खयाल की तस्वीर में उतरांगी
मैं यहीं कहीं हर कही
हर जगह तेनु मिलांगी

तेरे दिल के किसी सूखे एहसास में
या कभी तेरी रब से अरदास में
मैं तेनु फ़िर मिलांगी

तू जिन्ना मर्ज़ी छुपा तेरा मुझ से वास्ता नहीं
पर मेरे कोल रब दस्या,
तू मेरा ही रहना होर किसी दा होना नहीं 

तू झूठ बोल हज़ार, दिखा लाख तकरार
पर मेरा तुझसे मन मिलया, 
तो तक़दीर दा फ़िर किस्सा नही

मैं तो तेनु फ़िर मिलांगी

©kaveesha




यादाश्त बहुत अच्छी नहीं है मेरी, बादाम रोज़ भिगोये जाते हैं
न ही बहुत ज़्यादा किसी लेख़क, कवि की तारीफ़ करी
लेकिन कुछ नज़्में ऐसी छाप छोड़ती हैं ,कि कभी यूँ याद आजाएंगी
जैसे उनको पढ़े बिना आज खाना गले से नहीं उतरेगा


अमृता प्रीतम जी की सर्वप्रसिद्ध कविता "मैं तेनु फ़िर मिलांगी" का extension लिखा है
लिखा भी नहीं बस कलम खुद ब खुद चली | मुझे पंजाबी आती भी नहीं , पढ़ते समय वह अटपटापन आप सब पकड़ लेंगे लेकिन ये लिखते समय किसी पूर्वजन्म की अनुभूति थी शायद!

अमृता जी की यह कविता उनके अंत समय में उन्होंने लिखी, जब लौ बस टिमटिमा भर रही थी - रूमी ने भी तो यही कहा था "“Out beyond ideas of wrongdoing and right doing,there is a field. I’ll meet you there."

तो क्या अंत में सारे कवि और प्रेमी एक ही सा सोचते हैं ?

क्या सब यही कहते हैं "फिर मिलेंगे"?? ?


Pasting below Amrita Ji's Epic Poem

मैं तैनू फ़िर मिलांगी
कित्थे ? किस तरह पता नई
शायद तेरे ताखियल दी चिंगारी बण के
तेरे केनवास ते उतरांगी
जा खोरे तेरे केनवास दे उत्ते
इक रह्स्म्यी लकीर बण के
खामोश तैनू तक्दी रवांगी
जा खोरे सूरज दी लौ बण के
तेरे रंगा विच घुलांगी
जा रंगा दिया बाहवां विच बैठ के
तेरे केनवास नु वलांगी
पता नही किस तरह कित्थे
पर तेनु जरुर मिलांगी
जा खोरे इक चश्मा बनी होवांगी
ते जिवें झर्नियाँ दा पानी उड्दा
मैं पानी दियां बूंदा
तेरे पिंडे ते मलांगी
ते इक ठंडक जेहि बण के
तेरी छाती दे नाल लगांगी
मैं होर कुच्छ नही जानदी
पर इणा जानदी हां
कि वक्त जो वी करेगा
एक जनम मेरे नाल तुरेगा
एह जिस्म मुक्दा है
ता सब कुछ मूक जांदा हैं
पर चेतना दे धागे
कायनती कण हुन्दे ने
मैं ओना कणा नु चुगांगी
ते तेनु फ़िर मिलांगी


Friday, May 1, 2020

तुम



तुम न बिल्कुल
हिमालय की ऊंची वाली चोटी जैसे हो
बादलों से घिरे
तुम्हे नही दिखता कब से
तुम्हें ही जीतने में प्रयासरत हूँ मैं
बंजारों सी ज़िन्दगी जी रही हूँ
तुमने कभी तूफान दिए
कभी नीचे पटक दिया
अब तो तुम ठीक से दिखते भी नही
फिर भी प्रयासरत हूँ मैं 

Thursday, August 15, 2019

वक़्त

मैं समय हूँ
मैं कल था, मैं आज हूँ
मैं कल तेरा था,
आज उसका हूँ
मगर कल फिर से तेरा होऊँगा
मैं वक़्त हूँ

मुझे ठहरना नहीं आता ,
मुझे बस बदलना ही भाता
मैं बिगाड़ता भी हूँ, मैं ही सँवारता हूँ
कल वहाँ , तो अब यहाँ
मैं निरंतर गतिमान हूँ

मैं सिखाने आता हूँ,
सीख़ गए.. तो बुरी याद बनके चला भी जाता हूँ
गर न सीखे.. तो कुछ देर और ठहर जाता हूँ!
मैं जीवन हूँ

मैं तुम हूँ , मैं मैं हूँ
मैं ही आशा , मैं ही पश्चाताप
मैं ही भगवान , मैं ही असुर
मैं ही अच्छा और सिर्फ मैं ही बुरा
मैं ही सब कुछ हूँ

मैं समय हूँ

मैं तेरा वक़्त हूँ

Monday, August 12, 2019

अधूरे ख़त


बहुत सारे अधूरे ख़त लिखे रखे हैं मेरी दराज़ में
कुछ पूरे भी हैं, आखिर में लिखा है मेरा नाम
मगर युहीं पड़े हैं, तितर-बितर, मेरी दराज़ में

कभी अपनी मंज़िल तक पहुंच नहीं सके
"TO" में तुम्हारा नाम ज़रूर है , मगर असल में हैं ये मेरे नाम
जब कह नहीं सकती थी कुछ भी, तब लिखे थे ये खत तमाम

ढेरो बातें हैं इनमे, उस लम्हे में जिया हर एहसास जर्द है
कभी बहुत नाराज़ हूँ मैं, कभी गुहार लगा रही हूँ
कभी मैं ठीक हूँ,तुम चिंता मत करना , ऐसा बता रही हूँ
कहीं कहीं तो Bold letters में , खत में ही धमका रही हूँ

एक लम्बा अरसा गुज़र चुका है
लेकिन संभाले रहूंगी फिर भी ये खत सारे
तुम भी ज़िन्दगी जैसे हो..इसीलिए ज़िन्दगी हो
तुम दोनों का मुझे कोई भरोसा नहीं
फिर दोबारा लिखने होंगे , फिर से मेहनत करनी होगी
इसीलिए यूँही रहने दूंगी
ये अधूरे ख़त , तितर-बितर , मेरी दराज़ में 

Thursday, August 1, 2019

Overcoat

एक ओवरकोट है 
जिसे रोज़ पहन के बाहर निकलती हूँ

मुस्कुराहट के रेशे हैं, अभिनय के तार 
बटन हैं बेफिक्री के और रंग सुर्ख लाल 
अपनी ही परछाईयों से बुना है इसको 
ताकि आसान हो जाये रौशनी में निकलना 
खुद सिया है मैंने इसे 
रख कर किनारे सारे रंज, मलाल

मन मे चाहे जो भी हो 
छुपा लेता है ये ओवरकोट हर बात

घर आके करीने से अलगनी से टांग देती हूं 
कहीं कोई नाज़ुक धागा उधड़ के कुछ याद न करा जाए,
कोई बेमतलब धूल लग के सुर्ख रंग फ़ीका न पड़ जाए

बेहद अज़ीज़ है मुझे 
मेरा ये ओवरकोट 
जिसे मैं रोज़ पहन के बाहर निकलती हूँ!


कई रातें जागती बितायी हैं..
उन बेफ़िक्र सोती रातों की याद में!

तेरे हाथ का तकिया और गर्माहट की चादर;
ढूंढे नही मिलता किसी और कि पनाह में..!

दिन तो मुश्किल है मगर रात और भी मुश्किल
ग़मज़दा हूँ मैं अब खुद की ही याद में

तुम्हे याद हो तो बता देना मुझे भी
कैसी लगती थी मैं सोते हुए..
सुकून से तेरे पास में?

Tuesday, December 18, 2018

Untitled नज़्म -ऐ -ज़िन्दगी

कुछ नज़्मों के न
title नहीं हुआ करते,
क्युकी जब वो पैदा हुई
तब खुद ब खुद
खुद को कहती चली गयी..
समझ में भी नहीं आ पाया
और नज़्म बन के खड़ी हो गयी!
उसी तरह जैसे
खुद ब खुद हालात बनते जाते हैं,
और एक नयी ही ज़िन्दगी
सामने आकर खड़ी हो जाती है!
वो भी ऐसी
जो कभी सोची भी नहीं थी ..
उसी तरह ,
जैसे वो नज़्म बन जाती है ,
जिनके title नहीं हुआ करते ..!! 
दूर इतना भी न होना
के पास होने की
आदत ख़त्म हो जाये

न इश्क़ आये
न इश्क़ का खयाल..

ये ज़ख्म भी वक़्त के साथ
कहीं भर न जाये ..!

मुझे याद है

मेरी ग़र्म हथेलियों में 
जब तेरी ठंडी लकीरें समाती थीं 
मुझे याद है, 
कुछ देर हो जाये तो पसीज सी जाती थीं 
दूसरे हाथ से झट से थाम लेते थे 
और धीरे से जींस में हाथ पोछ लिया करते थे 
वक़्त के साथ, छूट गए हाथ 
जो थामे थे कभी,हमेशा के लिए 
अब समझ नहीं आता, हथेली गर्म है या नहीं 
तेरी ठंडक से ही तो, इनमें जान आती थी

Thursday, May 24, 2018

मुँह का स्वाद

मुँह का स्वाद, कुछ बिगड़ा हुआ सा है
जैसे किसी ने तार चटा दिया हो
दिल की कड़वाहट, तालु से भी लगती है क्या भला..
जीवन की इस घडी को,
जैसे किसी ने खाने में मिला दिया हो!

बहुत कोशिश की ये स्वाद लोप हो जाये;
कभी मीठा बनाया, कभी कैरी फ़ाकी;
जाने कितने लीटर पानी भी डाला..
मगर ये अजीब सा स्वाद,
जैसे जाने का नाम ही नहीं लेता!

चाशनी जो पागी थी..
उस पर अब मक्खियों का अस्थायी निवास है,
और कैरी भी..
कुछ कुछ काली पड़ने लगी है;
मगर ये मुआ मुँह का स्वाद,
सुधरने का नाम ही नहीं लेता!

तुम्हें कुछ टोटका मालूम हो तो बताना
मुझे तो लगता है..
मैंने गलती से ज़िन्दगी चख़ ली है! 

Thursday, May 10, 2018

इन्ही बादलों में घुमड़ जाऊँ,
या इसी समंदर से लिपट जाऊँ;
संसार की साजिशें अब समझ नहीं आती
जी में आता है,
यहाँ से वापस न जाऊँ!
रंग बदलता है जीवन,
इसी समंदर के पानी जैसा ;
कहीं खुशनुमा हल्का नीला..
कहीं भयावह काला गहरा!
कभी सूरज आँख दिखाता है,
कभी यहीं पे चाँद मुस्कुराता है ;
मगर जीवन तो इस कश्ती जैसा,
अतिशय चलता जाता है..!
जी में आता है..
ये फ़लसफ़ा समझ पाऊँ!
इन्ही लहरों में सिमट जाऊँ
यहाँ से वापस न जाऊँ!


#oneweekthreecountries #voyageroftheseascruise #indianocean #may2018 

Thursday, April 26, 2018

तेरे इश्क़ के मकां

तेरे इश्क़ के मकां
बनते हैं उधड़ते हैं
तू रूबरू नहीं मगर तेरे ख्याल,
रोज़ मेरे संग चलते हैं!
हमारे गुज़रे ज़माने ही अब..
मयस्सर रहा करते हैं!
इक दिन नहीं जाता,
के तेरा इश्क़ मेरी ज़िन्दगी से,
न टकराये..
अब तो ये फैसले ही,
दरमियान रहा करते हैं!
दिन साल में तब्दील हो जाते हैं..
मगर तेरे इश्क़ के मकां,
रोज़ ही, बनते हैं उधड़ते हैं!

Tuesday, February 13, 2018

तुम

बदलते अक्स का जाना पहचाना ख्वाब हो तुम
न साथी न सहारे, बस अधूरी चाह हो तुम
हम तो रह गए भरम में
कि तुझको भी मेरी आस है
के ये दुनिया जो कहती है
हमारे बीच बस वही इक बात है
क्यों गुलज़ार खिलाये, जो हैं अब सिर्फ धूप खाते
क्यों मंज़र वो दिखलाये ,जो अब बस याद आते
मैंने सोचा था. तुम मिलोगे मुझे
हमेशा भले एहसास में
क्यों ऐसे बाँध लगाए ,ये तो सहे न जाते
न साथी न सहारे, अनसुनी आह हो तुम!
बदलते अक्स का जाना पहचाना ख्वाब हो तुम


"सुना है ख्वाबों के लोग, ख्वाबों में ही रह जाते हैं
मरासिम के लम्हे सिर्फ रूबरू ही जिए जाते हैं "




Thursday, February 8, 2018

इक बार



मेरे तसव्वुफ़ में
बस इक तेरा ही सबब रहता है
के तसव्वुर हो तेरा,
इसी खयालात का हर लम्स रहता है

न पाने की ख्वाहिश,
न जीतने की आरज़ू
बस दीदार करूँ तेरे बदले अक्स का इक बार
बस ये ही फलसफा रहता है!

फेर लेना तू नज़रें ..इक बार रूबरू होके
इस पूरे ज़लज़ले के बाद,
एक मुकम्मल रुखसती का तो...
हक़ बनता है!

Tuesday, January 23, 2018

किस तरह

किस तरह ये रात बीते
इस रात से जुड़े जस्बात बीतें
मदहोशी के बावजूद गर होश में रहना पड़े
तो किस तरह ये रात बीते
छुपाने जैसा कुछ नहीं
मगर फिर भी लगे छुपाने जैसे
ये कैसे सवालों में दिन बीतें
ये किस तरह हम ज़िन्दगी है जीते
सब कुछ मान कर भी
हर कुछ ज़ाहिर नहीं कर सकते
क्यों ऐसे बंधे हुए अलफ़ाज़ कहते
ये कैसे अंदाज़ ज़िन्दगी की
किस तरह ये लम्बी रात बीते 

Wednesday, January 17, 2018

तू ज़िंदगी

तब चाहत थी माझी की
अब चाहत है किनारे की
किस रफ़्तार से बदलती है तू ज़िंदगी
क्या तुम भी हो गयी इन लहरों सी?
ये तो रुकने का नाम नहीं लेती
और तुम मुझे रुकने नहीं देती!
शिकवा नहीं इसे साझेदारी समझना
मुझे आदत है अब तुम्हारी इन हरकतों की.
तुम युहीं परेशां रहोगी इस समन्दर सी
मैं भी गिला करुँगी कभी कभी;
लेकिन तुम्ही से ऊब कर,
फिर फिर आया करुँगी..
तुम्हारे ही करीब!!

Sunday, October 1, 2017

नीला

तुम्हे नीला रंग बहुत पसंद था न
कपड़ों से लेकर दीवारों तक
कुछ भी नीला ही चुनते थे तुम मुस्कुराने के लिए
माँ ने जब नीला कुर्ता दिलाया था
मैंने तुम्हे ऐसे बताया था
जैसे दुनिया की सबसे बड़ी चीज़ हो
यूँ ही एक एक करके
सब कुछ नीला कर दिया था तुम्हारे लिए
आज तुम नहीं हो
और तुम्हारे आने का इंतज़ार भी नहीं
मगर एक चीज़ छूट गयी तुम्हारी
नीला रंग...
आजकल सब कुछ नीला ही भाता है
कपड़ों से लेकर दीवारों तक
माँ कहती है तुझे तो गुलाबी पसंद था अब क्या हुआ
मैं क्या बताऊँ माँ को
के तुम चले गए
मगर तुम्हारा रँग मुझपर रह गया


Wednesday, July 12, 2017

मर्ज़

मेरी कैफ़ियत गुज़रती नहीं
ये तबीयत संभलती नहीं
दुआओँ से भी कुछ न हुआ
ये मर्ज़ जिस्मानी नहीं
ख़ैरियत न पूछा करें मेरी आजकल
ये कश्मकश ख़त्म होती नहीं
वक़्त पे छोड़ा था मैंने इलाज
मगर वक़्त भी गुज़रा लौटता नहीं
मसरूफ रहा करती हूँ आजकल
ढूंढने में नए हकीम
सब कुछ आज़मा कर देख लिया
बचने की सूरत दिखती नहीं
मत पूछ बैठना "कैसी हो" मुझसे
मैं इंसां हूँ, खिलौना नहीं!

खिड़की

Somewhere in Kolad, Maharashtra #kaveeshaklicks
मेरी सामने वाली खिड़की से, रात की ख़ामोशी में
खिलखिलाहटें सुनाई आती हैं
कुछ कोरी चिट्ठियां रहती हैं वहां
जीवन की स्याही से अब तक अनछुई
तभी तो खिलखिलाती हैं
के आवाज़ यहाँ तक आती है
रात की ख़ामोशी में
मेरी खिड़की भी शायद
वहीँ से दिल बहलाती है
खुद तो देखती है हर रोज़
जीवन की स्याही इस ओर फैलते हुए
झेल जाती है हर बार, आक्रोश में जो उसके द्वार पटके गए
कई बार तो पूरी रात गुज़र जाती है,
मेरी खिड़की कहाँ सो पाती है...!
हर रात जैसे ऐसी रात भी गुज़र जाती है
रात की ख़ामोशी, सबकुछ मौन कर जाती है
जब भी थोड़ा सुकून पाती है
मेरी खिड़की सामने वाली खिड़की की तरफ
टकटकी लगाए पाए जाती है
उन कोरी चिट्ठियों से, खुद  पे बिखरी स्याही मिटाती है
मेरी खिड़की, सामने वाली खिड़की से ,
शायद थोड़ा रश्क़ भी खाती है!