तब चाहत थी माझी की
अब चाहत है किनारे की
किस रफ़्तार से बदलती है तू ज़िंदगी
क्या तुम भी हो गयी इन लहरों सी?
ये तो रुकने का नाम नहीं लेती
और तुम मुझे रुकने नहीं देती!
शिकवा नहीं इसे साझेदारी समझना
मुझे आदत है अब तुम्हारी इन हरकतों की.
तुम युहीं परेशां रहोगी इस समन्दर सी
मैं भी गिला करुँगी कभी कभी;
लेकिन तुम्ही से ऊब कर,
फिर फिर आया करुँगी..
तुम्हारे ही करीब!!
अब चाहत है किनारे की
किस रफ़्तार से बदलती है तू ज़िंदगी
क्या तुम भी हो गयी इन लहरों सी?
ये तो रुकने का नाम नहीं लेती
और तुम मुझे रुकने नहीं देती!
शिकवा नहीं इसे साझेदारी समझना
मुझे आदत है अब तुम्हारी इन हरकतों की.
तुम युहीं परेशां रहोगी इस समन्दर सी
मैं भी गिला करुँगी कभी कभी;
लेकिन तुम्ही से ऊब कर,
फिर फिर आया करुँगी..
तुम्हारे ही करीब!!
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