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ऐसा भी होता है,
कभी कभार,
गले में जैसे कुछ,
अटका सा रहता है;
सांस का रुख पलट जाता है
और आँखों का समा ज्यादा रौशन नहीं होता
मालूम है ऐसा कब होता है,
जब कुछ अपना, बहुत अपना
कहीं खो जाता है
और मैं सोचती हूँ ,
अभी तो यहीं था , ऐसे कैसे खो सकता है
कुछ दिन ढूँढती हूँ,
फिर थोडा मन को समझाती हूँ,
अब क्या होगा सोचने से ;
और मन फिर से ज़रा सा ,
भर सा आता है!