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Tuesday, January 22, 2013

मकां


मकां कई बनते हैं 
मन में ही बनते और उधड़ते हैं,
दीवारें चुनती हैं 
और फिर भी दरवाज़े खुलते हैं 

दरवाजों तक जाने वाले 
रास्ते चलते हैं , बदलते हैं 
जाने कितने मौसम बीत जाते हैं 
पर मकां अब भी बना करते हैं 

एक दिन कोई उस मकां का 
पता पूछ बैठता है 
तो कच्ची सड़क पर पक चुके 
पैरों के निशाँ बताते हैं 

के दीवारें तो ढह गयीं 
पर रास्ते अब भी 
उन खुले दरवाज़ों तक जाते हैं!!