Tuesday, December 18, 2018

Untitled नज़्म -ऐ -ज़िन्दगी

कुछ नज़्मों के न
title नहीं हुआ करते,
क्युकी जब वो पैदा हुई
तब खुद ब खुद
खुद को कहती चली गयी..
समझ में भी नहीं आ पाया
और नज़्म बन के खड़ी हो गयी!
उसी तरह जैसे
खुद ब खुद हालात बनते जाते हैं,
और एक नयी ही ज़िन्दगी
सामने आकर खड़ी हो जाती है!
वो भी ऐसी
जो कभी सोची भी नहीं थी ..
उसी तरह ,
जैसे वो नज़्म बन जाती है ,
जिनके title नहीं हुआ करते ..!! 
दूर इतना भी न होना
के पास होने की
आदत ख़त्म हो जाये

न इश्क़ आये
न इश्क़ का खयाल..

ये ज़ख्म भी वक़्त के साथ
कहीं भर न जाये ..!

मुझे याद है

मेरी ग़र्म हथेलियों में 
जब तेरी ठंडी लकीरें समाती थीं 
मुझे याद है, 
कुछ देर हो जाये तो पसीज सी जाती थीं 
दूसरे हाथ से झट से थाम लेते थे 
और धीरे से जींस में हाथ पोछ लिया करते थे 
वक़्त के साथ, छूट गए हाथ 
जो थामे थे कभी,हमेशा के लिए 
अब समझ नहीं आता, हथेली गर्म है या नहीं 
तेरी ठंडक से ही तो, इनमें जान आती थी