insta @kaveeshaklicks |
कुछ पुरानी लकड़ी के,
कुछ संगेमरमर के,
कुछ खुले, कुछ सांकल लगे हुए,
कुछ बंद भी होते हैं
खटखटाये जाने के इंतज़ार में,
और कुछ होते हैं अज़ार;
आने जाने वालों की,
निपट खबर से परे,
न खुद की सुध, न ही चेष्टा,
मानो उन्हें कोई फर्क ही नहीं पड़ता,
क्युकी न तो वो बंद हैं, न ही खुले,
सांकल गर हो भी तो वह भी सिर्फ दिखावे की,
काश मन भी ऐसा ही होता,
न मौसम से रोज़ सड़ती लकड़ी का,
न अपनी शोहरत के दिन याद करता संगेमरमर का,
न भीतर घुसने वालों का मोह,
न बाहर जातों का अफ़सोस,
बस यूँ ही होता,
अज़ार!
No comments:
Post a Comment