Wednesday, July 9, 2014

अज़ार

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दरवाज़े कई तरह के देखे होंगे
कुछ पुरानी लकड़ी के,
कुछ संगेमरमर के,
कुछ खुले, कुछ सांकल लगे हुए,
कुछ बंद भी होते हैं
खटखटाये जाने के इंतज़ार में,
और कुछ होते हैं अज़ार;

आने जाने वालों की,
निपट खबर से परे,
न खुद की सुध, न ही चेष्टा,
मानो उन्हें कोई फर्क ही नहीं पड़ता,
क्युकी न तो वो बंद हैं, न ही खुले,
सांकल गर  हो भी तो वह भी सिर्फ दिखावे की,


काश मन भी ऐसा ही होता,
न मौसम से रोज़ सड़ती लकड़ी का,
न अपनी शोहरत के दिन याद करता संगेमरमर का,
न भीतर घुसने वालों का मोह,
न बाहर जातों का अफ़सोस,
बस यूँ ही होता,
अज़ार!

     

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