Saturday, February 23, 2013

इबारतें (2)


Ibaratein
इबारतें बदल रहीं हैं,
मगर इबादतें वहीँ थमी हैं
मेरे हज की गलियों के नक्श,
आज भी वैसे के वैसे हैं
मगर शायद गलियां बदल रही हैं
इन पन्नो की सिलवट,
आज भी हर आहट समेटती है
पर ये बदलती इबारतें,
हर बार कुछ नए नक्श
उकेर ही देती है;
इबादतें थमी रह जाती हैं
इबारतें बस,
नयी लिख दी जाती हैं !


This is in continuation to another very dear poetic piece of mine! Both are called "Ibaratein" 
When Ibaratein 1 came out of my pen , it struck chords of many people I hardly knew and since then, it was always somewhere deep down in my heart to restore the "connect" by writing a second part to it! 


Hope I did justice to myself!

Read Ibaratein here!



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