सुनो
कभी कभी तरस भी आता है तुमपे
प्रेम के युग को बीतते देख रहे हो
और नितांत शून्य साधे बैठे हो?
शायद तुम्हारे लिए वक़्त ठहर गया है
या शायद,
गुज़र गया है
क्या बुद्ध हो गये हो?
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सुनो,
ये जो इतना झिझकते हो न तुम
कही गलती से भी प्रेम छलक न जाये
गंभीर नपी तुली बातों से कहीं
एक सिरा भी ढीला होके छूट न जाये
न पता लग जाये मुझे
अब भी कहीं गरमाईश है बाकी
न पूछ लूँ पलट के मैं
क्या इश्क़ है आज भी..., ज़रा भी?
बस वही!
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ये जो हर चीज़ छोड़ देने की आदत है ना तुम्हारी
बुरा लगा क्या? ठीक, अब से बोलूंगा ही नही
रिश्ते में कुछ अधूरा लगा क्या? ठीक, अब से रिश्ता रखूंगा ही नहीं
ये एक दिन सब कुछ छुड़वा देगी तुमसे
तुम्हे तुमसे भी
याद रखना
बस वही!
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सुनो
पता है तुम्हे अच्छा नही लगा
पर मुझे लगता है
थोड़ा सह लो??
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सुनो,
ये जो तुम अनजान बनने का नाटक करते हो न
जो मैं सच समझती हूँ जब द्रवित होती हूँ
बस वही!
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सुनो,
मुझे धीरे धीरे समझ आ रहा है
कि तुमको शायद कभी समझ नही आएगा
या शायद समझ के भी न समझने का नाटक करोगे
मगर मुझे वो भी समझ आ जायेगा
समझे?
बस वही!
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सुनो
जब उखड़ते हो कि मैँ कुछ लिख नही रही, पढ़ नही रही, कैनवस पर कुछ नया उकेर नही रही
और मैँ कितना कुछ महसूस कर जाती हूँ ये सब सुन के ...
बस वही!
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Bhut sunder kavita hai aapki,aapse nivedan hai ki aap mere visit me aaye aour mujhe disa nirdes de
ReplyDeletehttps://srikrishna444.blogspot.com/2020/07/blog-post.html
बहुत सुंदर..
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