Friday, July 1, 2016

खामोश शाम

सामने बादल गहरा रहा था
मन के भीतर कुछ और;
शाम जा रही थी..
सुंसनियात बढ़ती जा रही थी!
उसके तसव्वुर की तस्वीर भी अब,
धुंधली पड़ती जा रही थी;
और ख़ामोशी तो यूँ पाँव पसार कर बैठी थी ..
मानो कभी वापस जाने का इरादा ही हो!

दिन दिन, शाम दर शाम,
मन की गिरह, शुन्य होती जा रही थी..
रात आसमान में छा रही थी या ज़िन्दगी में,
इन्ही सवालों में ज़िन्दगी बीती जा रही थी!!


एक परिंदा दिखाई दिया,
शायद घर को मुखातिब था;
यहाँ तो "घर" की तलाश में..
तलब सूखी जा रही थी!!

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