Tuesday, January 23, 2018

किस तरह

किस तरह ये रात बीते
इस रात से जुड़े जस्बात बीतें
मदहोशी के बावजूद गर होश में रहना पड़े
तो किस तरह ये रात बीते
छुपाने जैसा कुछ नहीं
मगर फिर भी लगे छुपाने जैसे
ये कैसे सवालों में दिन बीतें
ये किस तरह हम ज़िन्दगी है जीते
सब कुछ मान कर भी
हर कुछ ज़ाहिर नहीं कर सकते
क्यों ऐसे बंधे हुए अलफ़ाज़ कहते
ये कैसे अंदाज़ ज़िन्दगी की
किस तरह ये लम्बी रात बीते 

Wednesday, January 17, 2018

तू ज़िंदगी

तब चाहत थी माझी की
अब चाहत है किनारे की
किस रफ़्तार से बदलती है तू ज़िंदगी
क्या तुम भी हो गयी इन लहरों सी?
ये तो रुकने का नाम नहीं लेती
और तुम मुझे रुकने नहीं देती!
शिकवा नहीं इसे साझेदारी समझना
मुझे आदत है अब तुम्हारी इन हरकतों की.
तुम युहीं परेशां रहोगी इस समन्दर सी
मैं भी गिला करुँगी कभी कभी;
लेकिन तुम्ही से ऊब कर,
फिर फिर आया करुँगी..
तुम्हारे ही करीब!!