Monday, February 28, 2011

सुरूर


नशा जब होता है , तो इक सुरूर सा छाता है 
दोस्तों की महफिलों में कोई अनजाना लुभाता है 
खुद को सँभालते हैं , पर दिल बहक बहक जाता है 
मिलती हैं जो नज़रें ,तो उन्हें छुपाया जाता है 
पढ़ लेते ही हैं वो , जिनसे कुछ कहना होता है 
खुशियों से लबरेज़ महफिलों में, दिल का कोई कोना रोता है 
कह उठते हैं जो दो लव्ज़, तो वाहवाह का समा हो जाता है 
घबरा के ये दिल , फिर 'उस' पे अटक जाता है 
सबकी नज़रें चुरा के, ये दिल फिर कुछ कहना चाहता है 
बीते दिनों की खुशनुमा यादों में, खुद को डुबोना चाहता है 
नशा जब होता है , तो इक सुरूर सा छाता है
नशे के सुरूर में ये दिल, तुमको वापिस पाना चाहता है