खुद को पिरो दिया तुझमे इतना
की हर धागे के खीचने से सिसकी निकलती है
जी करता है एक बार मे उधेड़ दूँ ये पूरा स्वेटर
वापस एक ऊन का बेमतलब का गोला बना दूँ
जो अधूरा सही मगर संभाल के रखा जाता हो
मगर उंगलियां मानो अकड़ जाती हों
इस खयाल भर से...
शायद तुझे और रंगों की चाहत है
मिलके उनमें, और फबेगा तू
नया डिज़ाइन नया नमूना
पल में बिखर के फिर नया बनेगा तू
तो क्या करूँ
खुद के धागे खींच के निकाल दूँ?
या रहने दूँ, यूँही थोड़ा पुराना थोड़ा अपना सा
धो सूखा के करीने से संदूक में सहेज लूँ
की अगले बरस फिर सर्दियों में
तेरी याद आएगी